Dhyan - ध्यान 2

जगद्गुरु आचार्य श्री १०८ कृष्णमणिजी महाराज

 

सुन्दरसाथजी ! पूर्व लेखमें ध्यानके सम्बन्धमें संक्षिप्त प्रकाश डालनेका प्रयत्न किया गया था । आप सभीको विदित ही है कि यह विषय अत्यन्त गहन एवं मार्मिक है । इसका जितना चिन्तन किया जाय वह अल्प ही माना जाएगा । इस आलेखके माध्यमसे भी हम ध्यानको और समझनेका प्रयत्न करेंगे ।
 
ध्यानके लिए बल पूर्वक प्रयत्न करनेकी अपेक्षा प्रेमपूर्वक प्रयत्न होना चाहिए । सर्वप्रथम श्री राजजीके चरणोंंके दर्शन करें । ये चरण इतने कोमल हैं कि उनका वर्णन ही नहीं हो सकता । इनके दर्शन मात्रसे ही परम तृप्तिका अनुभव होगा । यदि उनके स्पर्शका अनुभव करेंंगे तो अंग प्रत्यंग पुलकित होंगे । श्री श्यामाजीके चरण भी इसी भांति अति कोमल एवं अति सुन्दर हैं । इन चरणकमलोंके नख मोतियोंकी भांति चमक रहे हैं । महामति श्री प्राणनाथजीने इन चरणोंको आत्माके जीवनके रूपमंे वर्णन किया है । वे कहते हैं,
प्रथम लागूं दोऊ चरण को, धनी ए न छोडाइयो छिन ।
लांक तली लाल एडियां, मेरे जीव के ऐही जीवन ।।
इन पांव तले पड़ी रहूं, धनी नजर खोलो बातन ।
पल न बालूं निरखूं नेत्रे, मेरे जीवके एही जीवन ।।
                                          (सागर ६/,)
 
ये चरण आभूषणोंके बिना भी अति सुन्दर हैं । समान्यतयामा आभूषणोंसे शोभा और अधिक बढ़ जाती है किन्तु ये आभूषण श्री राजश्यामाजीके चरणोंकी शोभासे सुशोभित हैं । श्री राजश्यामाजीके द्वारा ही उनके आभूषणोंकी शोभा बढ़ती रहती है । इसलिए ये वस्त्र एवं आभूषण पल-पलमें नूतनता धराण करते हैं । देखते देखते ही इनकी आकृति एवं रंगोंमें नवीनता दिखाई देती है । इसी प्रकार श्री राजजी एवं श्री श्यामाजीकी सम्पूर्ण शोभा समझनी चाहिए ।
 
सर्वप्रथम चरणोंके दर्शन करने होते हैं इसलिए चरणोंकी शोभाका लेशमात्र वर्णन किया है वास्तवमें सभी अंगोंकी शोभा एक दूसरेसे बढ़कर है । जिन अंगोंके दर्शन करेंगे वे इतने सुन्दर हैं कि वहाँसे दृष्टिको हटाना कठिन होता है । चरणोंसे आरंभ कर मस्तक पर्यन्त शनैः शनैः दर्शन करने चाहिए । कहा भी है,
पहले अंगुरी नख चरण, मस्तकलों कीजे वरणन ।
सब अंग वस्तर भूषण, शोभा जाने आत्माके लगन ।।
 
सुन्दरसाथजी ! आप यह न समझें कि एक ही साथमें पूरे दर्शन हो जायेंगे । यह तो संभव ही नहीं है क्योंकि श्री राजजीका पूर्ण स्वरूप इस नश्वर शरीरके मस्तिक या हृदयमें समा ही नहीं सकता है । अन्तःकरण एवं हृदय जितने निर्मल हो उसीके आधार पर श्री राजजीके स्वरूपकी स्पष्टता दिखई देगी । आरंभमें तो एक अंगकी शोभा भी दिख जाय तो भी स्वयंको कृतकृत्य समझें । चेतन एवं अचेतन मन नितान्त निर्मल होने पर ही श्री राजजीका स्वरूप स्पष्ट दिखने लगेगा । ज्ञानी एवं योगीजन परमात्माके स्वरूपकी एक झलक पानेके लिए आजीवन साधना करते हैं ऐसेमें प्रेमीजन सदैव उस स्वरूपके दर्शन करते रहते हैं । किसको कितनी स्पष्टता दिखानी है वह तो श्री राजजी पर ही निर्भर रहता है । वे चाहे वैसा कर सकते हैं किन्तु इस मायामोहके अन्तर्गत उनका पूर्ण स्वरूप दिख जाय यह तो संभव हो नहीं है । जिस प्रकार उच्च गुणवतावाली फोटो कम स्मृति वाले उपकरणमें स्थापित नहीं हो सकती उसके लिए मूल फोटाका आकार और गुणवत्ताको घटाना आवश्यक होता है उसी प्रकार श्री राजश्यामाजीका पूर्ण स्वरूप मनुष्यकी स्मृति पटलमें उसी रूपमें कदापि अंकित नहीं हो सकता । जिस प्रकार मूल फोटोको हजारों गुना कम गुणवत्ता वाला बनाकर सामान्य उपकरणमें स्थापित किया जाता है तथापित सामान्यजनको इसका ज्ञान नहीं होता है उसी प्रकार समझें कि श्रीराजजी भी अपने स्वरूपको मनुष्यकी योग्यताके अनुरूप बनाकर उसे दर्शन देते हैं । चाहे जितनी भी स्पष्टता क्यों नहोे किन्तु श्रीराजजीके स्वरूपके दर्शन होना सामान्य बात नहीं है । निर्मल हृदय वाले प्रेमी व्यक्ति ही यह सो भाग्य प्राप्त कर सकते हैं । सभीके लिए यह सुलभ नहीं है । निजानन्दाचार्य श्री देवचन्द्रजी महाराजको जितने स्पष्ट दर्शन हुए हैं उस रूपमें कभी भी किसीको भी नहीं हुए । श्री राजजीके दर्शनको सामान्य फोटीकी भांति न समझें । सामान्य फोटोको तो समूहमें बैठे हुए अनेक लोग एक साथ देख सकते हैं किन्तु श्री राजजी तो समूहमें बैठे हुए लोंगमेंसे जिसको अपना स्वरूप दिखाना चाहते हैं उसको ही दर्शन देते हैं । उस समय दूसरोंको कुछ भी पता नहीं चलता है ।
 
वीतकका यह प्रसंग आप सभीको ख्याल ही होगा कि एक दिन श्री राजजीने दर्शन देकर माता लीलाबाईको कहा, चलो परमधाम ! मैं तुम्हें लेनेके लिए आया हूँ । माता लीलाबाई सद्गुरुकी आज्ञा प्राप्त करने पर ही सभी कार्य करती थी इसलिए उन्होंने श्री राजजीको कहा, हे धामधनी ! एक बार मैं सद्गुरुको पूछ लूं तत्पश्चात् मैं आपके साथ चलूंगी । तब श्रीराजजीने कहा, मैं कल इसी समय आऊंगा तुम सब कुछ पूछकर अपनी तैयारी कर लेना । माता लीलाबाईने सद्गुरुसे इस घटनाकी चर्चा की और श्री राजजीके साथ जानेकी आज्ञा माँगी । तब सद्गुरुने कहा, श्री राजजीसे पूछना कि बच्चोंके लिए क्या व्यवस्था की है, वह बताकर तुम उनके साथ जा सकती हो । दूसरे दिन जब श्रीराजजी लेनेके लिए आए तब माता लीलाबाई सद्गुरुके निकट बैठी थी । उन्होंंने सद्गुरुने जो पूछा था वह बात श्री राजजीको बतायी । उस समय श्री राजजीने कहा, बच्चोंकी पूरी व्यवस्था हो गई है, उनकी चिन्ता करनेकी कोई आवश्यकता नहीं है । तब सद्गुरुने कहा, अब तुम श्रीराजजीके साथ जा सकती हो । उस समय सद्गुरुने माता लीलाबाईको कहा, श्रीराजजी तुम्हारे समक्ष खड़े हैं उनका आभास सुन्दरसाथको भी करवा दो । तब माता लीलाबाईने श्रीराजजीके जामाकी छोर पकड़ कर सुन्दरसाथसे कहा, देखो ! श्रीराजजी यहाँ पर खड़े हैं, मैंने उनका दावन पकड़ रखा है । उस समय मात्र माता लीलाबाईको ही श्रीराजजी दिखाई दे रहे थे । दूसरे कोई भी उनके दर्शन नहीं कर पा रहे थे ।
 
यह घटना सामान्यसी लगती है किन्तु सामान्य नहीं है । इसमें बहुत बड़ा रहस्य छिपा हुआ है । एक तो इस घटनासे श्रीराजजीका सामर्थ्य स्पष्ट होता है कि वे जो चाहे वह कर सकते हैं अर्थात् वे जिसको दर्शन देना चाहें उसीको उनके दर्शन होंगे । दूसरी बात माता लीलाबाई कोई ज्ञानी महिला नहीं थी । उनमें यह विशेषता थी कि वे सद्गुरुके प्रति पूर्णतः समर्पित थी । इससे यह फलित होता है कि सद्गुरुके प्रति पूर्ण विश्वास हो तो भी श्रीराजजीके दर्शन हो सकते हैं । किन्तु यहाँ पर यह ध्यान देने योग्य है कि महामति श्री प्राणनाथजीने सद्गुरुके जो लक्षण बताये हैं वैसे लक्षणोंसे सम्पन्न सद्गुरुमें ही यह विशेषता होगी । आजकल अपना महत्त्व बढ़ानेकी लालसा वाले स्वयंभू सद्गुरुमें ऐसी विशेषता नहीं होगी ।
 
ध्यान करते हुए सर्वप्रथम श्रीराजजीके एक अंगको देखनेका प्रयत्न करें । एक साथ पूरे स्वरूपके दर्शन नहीं हो सकते हैं । किसी न किसी अंगकी झलक दिखने पर हमारा उत्साह और बढ़ेगा । जैसे-जैसे आतुरता बढ़ती जायेगी वैसे-वैसे अनुभव बढ़ता जायेगा । इस प्रकार बढ़ते जायेंगे तो श्रीराजजीके प्रति प्रेम भी बढ़ता जाएगा और आपको अहर्निश उनके साहचर्यका अनुभव होने लगेगा । इस प्रकार प्रगति होती रहेगी और श्रीराजजीका स्वरूप स्पष्ट दिखने लगेगा । यह कपोल कल्पना नहीं अपितु यथार्थ है । किन्तु जो लोग इस दिशामें आगे बढ़े नहीं हैं और जिनको दृढविश्वास नहीं है उनको तो ये बातें कल्पनामयी लगने लगेगी । यह सुनिश्चित है कि अंहकारके रहते हुए कभी भी श्रीराजजीका अनुभव नहीं होगा । इसीलिए कहा गया है कि ज्ञानियोंको परमात्माका अनुभव नहीं होता है । क्योंकि उनको संसारका ज्ञान है, संसारके नियमोंका ज्ञान है परन्तु परमात्माके प्रेमका ज्ञान नहीं है । जो परमात्माको ही जानता है ऐसे प्रेमीको ही परमात्मा दिखते हैं । कहा भी है,
प्रेम गली अति साकंरी, यामें दोय न समाय ।
 
प्रेमी व्यक्ति दुनियांके लिए पागल लगने लगेगा । क्यों न हो वह तो परमात्माके प्रेममें पागल ही है । लौकिक वस्तुओंके पीछे पागल बने हुए लोगोंको भी अपनी सुधि नहीं रहती है तो परमात्माके पीछे पागल बने हुए व्यक्तिको अपनी सुधि कैसे रहेगी । किन्तु परमात्मा उससे कोई बूरे कार्य होने नहीं देंगे । उसकी भूल भी भूल नहीं अपितु लोक कल्याणकारी कार्यके रूपमे परिणत होगी ।
 
अनेक लोग किसी व्यक्तिकी बाह्य सुन्दरता एवं बाह्य हावभावकी ओर आकृष्ट होते हैं । किसीकी सुन्दर आकृति ऐसे लोगोंके मनको अनायास खींच लेती है । इसी प्रकार किसीकी भीतरकी सुन्दरता अर्थात् अन्तःकरणकी पवित्रता छल कपट रहित सरल स्वभाव भी लोगोंको अपनी ओर आकृष्ट करनेमें सक्षम होता है । परमात्मा तो बाहर एवं भीतर दोनों ओरसे सुन्दर हैं । क्या वे हमें अपनी ओर नहीं खींचेगे ? अवश्य खींचेंगे किन्तु उनकी सुन्दरताको देखने पर ही हम उनकी ओर खींचे जायेंगे । इसलिए हमें सर्वप्रथम उनकी सुन्दरताको देखना होगा । वास्तवमें ध्यान परमात्माकी सुन्दरताको देखनेके लिए है । किन्तु हम हृदयमें विकारोंको भर कर उनकी ओर दौड़ना चाहते हैं इसलिए हमारी साधना निष्फल हो जाती है; हमारा ध्यान लक्ष्यहीन हो जाता है ।
 
ध्यानके सन्दर्भमें एक और बात भी मननीय है । वह है श्रीराजजीका मार्गदर्शन, उनसे वार्तालाप । ध्यानमें श्रीराजजीसे वार्तालाप भी संभव है । किन्तु यह तभी संभव होगा जब हम उनके वचनोंको सुननेके लिए सक्षम होंगे । यह भी हृदयकी निर्मलता, समर्पण भाव एवं निश्छल प्रेमकी निरन्तरता पर निर्भर होगा । श्रीराजजी तो हमें सदैव अच्छा मार्ग बतायेंगे, अनिष्टोंसे बचायेंगे, हमारे साथ-साथ लोकका भी कल्याण करेंगे । किन्तु हमारा ध्यान बंटा हुआ होता है । जिससे हम उनका मार्गदर्शन भी समझ नहीं पाते हैं, उनसे वार्तालापकी तो बात ही दूर रही । क्या सद्गुरुने श्रीराजजीसे वार्तालाप नहीं की थी ?क्या महामति श्री प्राणनाथजीने श्रीराजजीसे वार्तालाप नहीं की थी ?
अवश्य की थी । श्री तारतम सागरमें अनेक प्रसंग ऐसे हैं जहाँ महामति श्री राजजीसे वार्तालाप करते हुए दिखाई देते हैं ।
 
सिन्धी ग्रन्थका विरह और उपालम्भ वार्तालापसे अतिरिक्त क्या हो सकता है ?
खिलवत ग्रन्थ तो पूरा वार्तालाप ही माना जा सकता है । इसी प्रकार श्री तारतम सागरमें ऐसे अनेक प्रसंगोंका उल्लेख है जहाँ निजानन्दाचार्य श्री देवचन्द्रजी महाराज श्री राजजीके साथ वार्तालाप करते हैं । वीतक भी इसके साक्षी हैं । ध्यानमें व्रजमंडलके दर्शनके समय भी श्रीकृष्णजीसे वार्तालाप हुई । नवतनपुरीमें साक्षात् दर्शनके समय भी वार्तालाप हुई । इसी अवसर पर ब्रह्मात्माओंकी जागनीका दायित्व सद्गुरुको सौंपा गया था । इस प्रकार ध्यानमें वार्तालाप संभव है और ऐसे अनेक प्रसंग उपस्थित हुए हैं ।
 
ध्यानमें श्रीराजश्यामाजीके स्वरूपके दर्शनके साथ साथ उनकी विविध लीलाओंके दर्शन भी होते हैं ।यह तो श्री राजजीकी इच्छा पर निर्भर है कि वे हमें कौन-कौनसी लीलाओंके दर्शन करवाना चाहते हैं ?
श्रीराजजी हमारी उत्कट अभिलाषाको अवश्य पूर्ण कर देते हैं । हम श्रीराजजीके प्रेममें मस्त होंगे तो भी यदा-कदा वे विभिन्न लीलाओंके दर्शन करवा देते हैं । इन लीलाओंमें परमधाम, व्रज, रास और जागनी मध्ये कोई भी संभव है । इतना ही नहीं ध्यानमें परमधामके भी दर्शन संभव है । व्रज और रासकी लीलाओंके दर्शन भी संभव है । श्रीदेवचन्द्रजी महाराजको व्रजकी लीलाओंके दर्शन एवं महामति श्री प्राणनाथजीको रासकी लीलाओंके दर्शन हुए थे यह तो वीतकोंंमें स्पष्ट लिखा है । श्रीदेवचन्द्रजी महाराज तो परमधामका वर्णन ऐसे करते थे जैसे देख कर बता रहे हैं । वस्तुतः उनको स्पष्ट दिखाई देता था । इसी प्रकार महामति श्री प्राणनाथजीको भी स्पष्ट दिखाई देता था । अन्यथा वे परमधामका इतना विशद वर्णन कैसे कर सकते थे ? इसी प्रकार स्वामी लालदास जी, ब्रह्ममुनि जुगलदासजीको भी परमधाम दिखाई देता था । परमधामके थोड़े बहुत दृश्य देखनेवाले एवं श्रीराजजीकी सामान्य झलक प्राप्त करनेवाले महापुरुष तो अनेक हुए हैं । ये घटनाएँ पूर्वकालमें ही घटती थी ऐसी बात नहीं है । यह तो आज भी संभव है । श्रीराजजीके प्रति हमारा विश्वास कम हुआ और संसारके प्रति बढ़ने लगा तभी हम स्वयंको श्रीराजजीसे दूर समझने लगे । इसलिए हमें श्रीराजजीकी बातों पर विश्वास भी कम होने लगा ।
 
सुन्दरसाथजी ! यदि हम निष्ठा पूर्वक ध्यानको आगे बढायेंगे, हमारा हृदय निर्मल होगा, अंतःकरणके विकार दूर होंगे तो हमें भी थोड़ा-थोड़ा अनुभव अवश्य होने लगेगा । जैसे ही अनुभव होने लगेगा वैसे ही हम अपनी भावनाओंको और पवित्र बनायें, श्रीराजजीके प्रति विश्वासको दृढ बनायें एवं हृदयको प्रेमसे छलका दें । तब हमें क्या-क्या अनुभव होगा, कैसे-कैसे दर्शन होंगे इसका क्या वर्णन करें ? इनका तो प्रत्यक्ष अनुभव कर जीवनको आनन्दित बनायें ।
 

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