Bhakti - भक्ति

जगद्गुरु आचार्य श्री १०८ कृष्णमणिजी महाराज

 

सेवार्थक भज् धातुसे क्तिन् प्रत्यय लगनेपर भक्ति शब्द निष्पन्न होता है । यहाँ पर भज् धातु सेवा अर्थमें है । सेवाका तात्पर्य समर्पण होता है । इस प्रकार भक्तिका तात्पर्य भी समर्पण है । परमात्मके प्रति पूर्णतः समर्पण होना ही भक्ति है । पूर्ण समर्पणका तात्पर्य है परमात्माके प्रति अनुकूल होना । मैं और मेरे पनसे ऊपर उठकर परमात्माकी अनुकूलतामें अपनी अनुकूलता समझना, परमात्माकी इच्छाके अनुसार चलना पूर्ण समर्पण अथवा भक्ति है ।


संसारका खेल भी पूर्णब्रह्म परमात्माकी ही लीला है । परमात्माकी लीलाको अन्तरंग और बहिरंग दो प्रकारसे समझा जा सकता है । ब्रह्मधाम परमधामकी लीला अन्तरंग लीला है । पूर्णब्रह्म परमात्मा अपने ही अंग अक्षरब्रह्मके द्वारा जो लीलाएँ करते हैं वह बहिरंग लीला कहलाती है । वह भी परिवर्तनशील और अपरिवर्तनशील दो प्रकारकी होती है । अक्षरब्रह्म अपनी विभूतियोंके द्वारा अखण्ड भूमिमें जो लीला करते हैं वह अपरिवर्तनशील अर्थात् अखण्ड लीला है । जब वे अपनी अपरा प्रकृतिके द्वारा नश्वर जगतकी सृष्टि, स्थिति एवं लय करते हैं वह उनकी परिवर्तनशील लीला है । इस प्रकार नश्वर जगतका खेल भी अक्षरब्रह्मके द्वारा की गई पूर्णब्रह्म परमात्माकी ही लीला है ।


जब अक्षरब्रह्म अपनी अपरा प्रकृतिको प्रकट करते हैं तब उनका ही अंश भगवान नारायणके रूपमें उसमें प्रवेश करता है । तदनन्तर भगवान नारायणके संकल्पसे ब्रह्मा, विष्णु, महेश तथा क्रमशः विभिन्न देवीदेवतायें प्रकट होते हैं । इस प्रकार अपरा प्रकृतिके द्वारा निर्मित संसारमें अक्षरब्रह्म अपनी पराप्रकृतिके अंश अर्थात् जीव(चेतना)को भेजते हैं । तात्पर्य यह है कि अक्षरब्रह्मके ही अंगस्वरूप प्रणव ब्रह्मके द्वारा प्रकट होकर अनेक चेतनाएँ भिन्न-भिन्न ब्रह्माण्डमें जाती हैं । उनके लिए ब्रह्माजी शरीरकी रचना कर देते हैं । भगवान विष्णु उनके भोजनकी व्यवस्था कर देते हैं । भगवान शंकर ब्रह्माजीद्वारा निर्मित शरीरोंका संहार कर सृष्टिका सन्तुलन बनाये रखते हैं ।


पूर्णब्रह्म परमात्माकी बहिरंग लीलाको मुख्यतया दो प्रकारकी माना है । नश्वर ब्रह्माण्डोंकी लीला परिवर्तनशील होनेसे क्षर लीला कहलाती है । और अखण्ड लीला अपरिवर्तनशील होनेसे अक्षर लीला कहलाती है । नश्वर जगतमें अविनाशी लीला व्यक्त नहीं होती है । शास्त्रोंमें इस अविनाशी लीलाको अव्यक्त लीला एवं इस लीलाके स्वरूप अक्षरब्रह्मको अव्यक्त ब्रह्म भी कहा है । यद्यपि अव्यक्त ब्रह्म अक्षरब्रह्मका चतुर्थ पाद(अंश) ही है तथापि नश्वर जगतमें व्यक्त न होनेके कारण अक्षरब्रह्मको भी अव्यक्त कह दिया है । कुछ स्थानोंमें उनको निर्गुण ब्रह्म भी कहा है ।


अक्षरब्रह्मके द्वारा सम्पन्न हो रही अविनाशी लीला एवं नश्वर ब्रह्माण्डोंमें सम्पन्न हो रही परिवर्तनशील लीला मूलतः पूर्णब्रह्म परमात्माकी ही लीला है किन्तु बहिरंग होनेसे उसे अक्षरब्रह्म अथवा कार्यब्रह्मकी लीला कहा है । परमधामकी लीलाको पूर्णब्रह्म परमात्माकी स्वलीला कहा है । मूलतः उक्त सभी लीलाएँ एक पूर्णब्रह्म परमात्माकी ही हैं । क्योंकि अक्षरब्रह्म उनके ही अंग हैं ।


उक्त तीनों लीलाओंमें भिन्न-भिन्न रूपसे प्रकट होनेवाला स्वरूप मूलतः पूर्णब्रह्म परमात्माका ही स्वरूप है किन्तु क्षर लीलामें प्रकट होनेवाले स्वरूपको क्षर स्वरूप, अक्षर लीलामें प्रकट होनेवाले स्वरूपको अक्षरस्वरूप एवं परमधामकी लीलाके स्वरूपको अक्षरातीत स्वरूप कहा है । इस प्रकार ब्रह्म मूलतः एक ही है किन्तु लीला भेदके कारण क्षर, अक्षर एवं अक्षरातीत कहलाता है । ब्रह्मके यथार्थ स्वरूप तथा लीलाओंको जानना एवं अनुभव करना अति आवश्यक है । इसके लिए महापुरुषोंने दो मार्ग बतालाये हैं । वे हैं, ज्ञाानमार्ग एवं भक्तिमार्ग ।


ज्ञाानके द्वारा परमात्माकी लीला एवं स्वरूपको जाना जा सकता है एवं भक्तिके द्वारा उन्हें प्राप्त किया जाता है अर्थात् उनका अनुभव किया जा सकता है । ऐसे ज्ञाानको श्री कृष्ण प्रणामी धर्ममें तारतम्य ज्ञाान एवं ऐसी भक्तिको प्रेमलक्षणा भक्ति कहा है । यहाँ पर भक्तिकी चर्चा करनी है ।


पूर्णब्रह्म परमात्माके प्रति अतिशय प्रेम होना ही भक्ति है । कहा भी है,
सा तु अस्मिन् परमप्रेमरूपा । (नारद भक्ति सूत्र २)

वह मूलतः एक होते हुए भी तीन प्रकारकी मानी गई है । यथा,
भक्तिश्च त्रिविधा प्रोक्ता सगुणा निर्गुणा परा ।
भक्ति तीन प्रकारकी कही गई है । वह है,

१) सगुणा,

२) निर्गुणा एवं

३) परा


पूर्णब्रह्म परमात्मा एक हैं (पारपुरुष तो पिया एक है - महामति प्राणनाथ) । किन्तु लीला भेदके कारण क्षर, अक्षर एवं अक्षरातीत कहलाते हैं । उसी प्रकार परमात्माको प्राप्त करवानेवाली भक्ति भी मूलतः एक ही है किन्तु परमात्माके क्षर स्वरूपका अनुभव करवानेवाली भक्ति सगुणा भक्ति कहलाती है, अक्षर स्वरूपका अनुभव करवानेवाली भक्ति निर्गुणा भक्ति कहलाती है और मूलस्वरूप अर्थात् अक्षरातीतका अनुभव करवानेवाली भक्ति परा भक्ति कहलाती है ।


सगुणा भक्ति


परमात्माका क्षर स्वरूप पांचतत्त्व एवं तीन गुणोंके द्वारा व्यक्त होनेसे उसे सगुण स्वरूप भी कहा है । सगुण स्वरूपमें भगवान नारायणसे लेकर ब्रह्मा, विष्णु, महेश विभिन्न अवतार तथा देवी-देवतायें आते हैं । इन सभीमें परिवर्तनशीलता है । जिस प्रकार चौदहलोक एवं अष्ट आवरणयुक्त सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड परिवर्तनशील तथा क्षणभङ्गुर कहलाता है उसी प्रकार देवी-देवताओंसे लेकर विभिन्न अवतार उन अवतारोंके मूल ब्रह्मा, विष्णु, महेश सहित भगवान नारायण भी परिवर्तनशील हैं । परिवर्तनशील होनेके कारण ही इनको परमात्माका क्षर स्वरूप अथवा क्षरब्रह्म, सगुणब्रह्म आदि नामोंसे पुकारा है ।


परमात्माके इस सगुण स्वरूप अर्थात् क्षर स्वरूपका अनुभव करवानेवाली भक्ति सगुण भक्ति कहलाती है । वह मुख्यतया नौ प्रकारकी है इसलिए इसे नवधा भक्ति कहा गया है । विस्तारभयसे अभी सगुण भक्तिके नौ प्रकारके विषयमें चर्चा नहीं करेंगे ।


निर्गुण भक्ति


पूर्णब्रह्म परमात्माकी बहिरंग लीलामेंसे अविनाशी लीलाके स्वरूपको अक्षरब्रह्म कहा है । शास्त्रोंमें कुछ स्थानोंपर उनको अव्यक्त ब्रह्म अथवा निर्गुण ब्रह्म भी कहा है । अक्षरब्रह्मका स्वरूप पाँच तत्त्व और तीन गुणोंके द्वारा व्यक्त नहीं होता है इसीलिए उनको निर्गुण ब्रह्म कहा है । यहाँपर निर्गुण या अव्यक्त कहनेसे निराकार या शून्य नहीं समझना चाहिए । वैसे तो निराकारका अर्थ भी वास्तवमें आकार रहित नहीं है । निराकारका यथार्थ है, परमात्माका वह आकार जो पाँच तत्त्व और तीन गुणोंके द्वारा व्यक्त नहीं हो सकता है । इसका अर्थ आकारका नहीं होना ऐसा नहीं होता है । किन्तु लोगोंने अज्ञाानतावश परमात्माको आकाररहित अर्थात् निराकार ऐसा कहा दिया इसलिए यही कहावत प्रचलित हो गई कि परमात्मा निराकार हैं ।


वास्तवमें परमात्मा लौकिक साकार या निराकार नहीं अपितु सच्चिदानन्द स्वरूप हैं । उनकी बहिरंग लीलाके मुख्य स्वरूप अक्षरब्रह्म हैं । उनकी अनुभूति करवानेवाली भक्ति निर्गुणा भक्ति कहलाती है । वह आठ प्रकारकी है । उसीको अष्टाङ्ग योग भी कहा है ।


अज्ञाानी लोगोंने अक्षरब्रह्मको निराकार, निर्गुण माना और ऐसे निर्गुण ब्रह्मकी अनुभूति करवानेवाली भक्तिको भी निर्गुण भक्ति कहा । और अष्टाङ्ग योग साधनाका मुख्य ध्येय निराकार ब्रह्मका अनुभव करना मान लिया । यही भ्रान्ति आज भी व्यापकरूपमें है । वास्तवमें परमात्माके अविनाशी स्वरूपकी अनुभूतिके लिए निर्गुण भक्ति अर्थात् अष्टाङ्ग योगका उपदेश हुआ है । इसके द्वारा परमात्माके अपरिवर्तनशील स्वरूप अर्थात् अक्षर(अविनाशी) स्वरूपका अनुभव होता है । योगके आठ अङ्गोंके विषयमें विस्तारपूर्वक चर्चा करना अभी अभीष्ट न होनेसे मात्र उनका उल्लेख ही किया गया है ।


परा भक्ति


पूर्णब्रह्म परमात्माकी अन्तरंग लीला अर्थात् परमधामकी लीलाके स्वरूपकी अनुभूति करवानेवाली भक्ति परा भक्ति कहलाती है । परमात्माको प्रेमस्वरूप(प्रेम ब्रह्म दोउ एक है-महामति प्राणनाथ) कहा है । उनकी लीला भी प्रेमलीला कही है । इसलिए पराभक्तिको प्रेमलक्षणा भक्ति भी कहा है । यद्यपि कुछ महापुरुषोंने पराभक्तिके भी भिन्न-भिन्न प्रकार कहे हैं किन्तु प्रेममें सभी भेद मिट जाते हैं । इसलिए प्रेमलक्षणा भक्तिके भी सभी प्रकार एकरूप हो जाते हैं । अतः पराभक्ति अर्थात् प्रेमलक्षणा भक्तिमें कोई भिन्न-भिन्न प्रकार नहीं रहते हैं इसलिए वह एक ही है ।


यह भक्ति सर्वप्रथम व्रजकी गोपियोंमें पायी गई है । इसलिए नारदजीने भक्तिसूत्रका प्रणयन करते हुए व्रजकी गोपियोंका उदाहरण दिया । गोपियाँ श्री कृष्णजीके प्रति पूर्णतः समर्पित थीं । वे श्री कृष्णजीकी अनुकूलतामें अपनी अनुकूलता समझती थीं । दूसरे शब्दोंमें कहें तो वे अपना अस्तित्व ही श्री कृष्णजीके लिए समझती थीं । इसलिए गोपियोंकी भक्तिको ही वास्तवमें भक्ति कहा है ।


पूर्णब्रह्म परमात्माने अपने अन्तरंग लीलाके पात्र ब्रह्मात्माओंको बहिरंगका लीला अनुभव करवानेके लिए एवं अपनी बहिरंग लीलाके मुख्य पात्र अक्षरब्रह्मको अपनी अन्तरंग लीलाका अनुभव करवानेके लिए नश्वर जगतमें भी व्रज एवं रासकी लीलायें सम्पन्न की । साथमें ब्रह्मात्माओंको व्रज, रास एवं जागनी लीलाके साथ-साथ परमधामकी लीलाका एक साथ अनुभव करवानेके लिए जागनी लीलाका आयोजन किया और इसके लिए तारतम्य ज्ञाान एवं प्रेमलक्षणा भक्तिका प्रतिपादन किया ।


तारतम्य ज्ञाानके द्वारा ब्रह्मके क्षर, अक्षर एवं अक्षरातीत स्वरूपके साथ-साथ व्रज, रास, जागनी एवं परमधामकी लीलाका ज्ञाान प्राप्त होता है । प्रेमलक्षणा भक्तिके द्वारा ब्रह्मके क्षर, अक्षर एवं अक्षरातीत स्वरूपके साथ-साथ व्रज, रास, जागनी एवं परमधामकी लीलाओंकी अनुभूति प्राप्त होती है । इसीलिए प्रेमलक्षणा भक्तिको फलरूपा कहा है ।


फलरूपत्वात् (नारदभक्ति सूत्र २६)


महामति श्री प्राणनाथजीने प्रेमको ब्रह्मका ही स्वरूप माना है । वास्तवमें ब्रह्मधाममें ही प्रेम है और ब्रह्मधामकी लीलाओंके द्वारा ही वह प्रकट होता है । पूर्णब्रह्म परमात्माने जब अपनी अन्तरंग लीला(ब्रह्मधामकी लीला)को इस नश्वर जगतमें प्रकट किया तब यह प्रेम भी इस जगतमें प्रकट हुआ है । इसीलिए महामति कहते हैं, इस जगतमें प्रेम लेशमात्र भी नहीं था उसको सर्वप्रथम ब्रह्मात्माओंने ही प्रकट किया । व्रजकी गोपियाँ ब्रह्मात्माएँ थीं । इसीलिए नारदजीने भी उनका ही उदाहरण दिया है ।


जो आत्मा अक्षरातीत पूर्णब्रह्म परमात्माके प्रति समर्पित होती है उसके हृदयसे प्रेमका प्रवाह प्रवाहित होने लगता है । ऐसे प्रेम रसमें डुबी हुई आत्माएँ अपने प्रेमको शब्दके द्वारा व्यक्त नहीं कर सकतीं । उनके अंग प्रत्यङ्गसे प्रेम प्रकट होता है इसलिए उनकी वाणीके साथ-साथ सारी चेष्टायें प्रेमसे ओतप्रोत होती हैं ।


प्रेमलक्षणा भक्तिकी दशाकी पराकाष्टाका वर्णन करते हुए महामति कहते हैं,


रस मगन भई सो क्या गावे।
विचली बुध मन चित मनुआ, ताए सबद सीधा मुख क्यों आवे ।।१


विचले नैन श्रवन मुख रसना, विचले गुन पख इन्द्री अंग ।
विचली भांत गई गत प्रकृत, विचल्यो संग भई और रंग ।।२


विचली दिसा अवस्था चारों, विचली सुध ना रही सरीर ।
विचल्यो मोह अहंकार मूलथें, नैनों नींद न आवे नीर ।।३


विचल गई गम वार पारकी, और अंग न कछुए सांन ।
पिया रसमें यों भई महामत, प्रेम मगन क्यों करसी गांन ।।४


प्रकरण २५


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