Atma-Drishti - आत्म दृष्टि
जगद्गुरु आचार्य श्री १०८ कृष्णमणिजी महाराज
'आत्म दृष्टि' यह शब्द सुनते ही प्रश्न उठता है क्या आत्माकी भी दृष्टि होती है, यदि होती है तो उसका ज्ञान कैसे होगा ? ये प्रश्न विचारणीय हैं । इन पर मनन करने पर यह ज्ञानत होता है कि दृष्टि ही आत्माकी होती है तथा आत्मा ही देखती है । चक्षु इन्द्रिय तो बाह्य जगतको देखनेके लिए साधन मात्र है । सामान्यतया व्यवहारमें यह ज्ञानन होता है कि चक्षु इन्द्रिय ही दृष्टि है और मात्र इसीसे देखा जाता है । वास्तवमें यह अधुरा ज्ञानन है । इन्द्रियाँ साधनके रूपमें ही होती हैं । यथार्थमें आत्माके बिना देखा नहीं जा सकता है । आत्मा ही देखती है इसलिए आत्माकी ही दृष्टि होती है उसीको आत्मदृष्टि कहा है । उसे पहचाननेकी आवश्यकता है ।
सर्वप्रथम हम इन्द्रियाँ और उनके कार्यों पर विचार करते हैं । संस्कृत भाषामें इन्द्रियोंको करण कहा है जिसका अर्थ होता है साधन । करण अर्थात् इन्द्रियाँ मुख्यतया दो प्रकारकी होती हैं । एक बाहरकी इन्द्रियाँ अर्थात् बाह्यकरण दूसरी अन्तरकी इन्द्रियाँ अर्थात् अन्तःकरण । बाहरकी इन्द्रियाँ भी दो प्रकारकी होती हैं । उनमेंसे कुछ इन्द्रियोंसे ज्ञानन प्राप्त होता है और कुछ इन्द्रियोंके द्वारा कर्म किए जाते हैं । जिनके द्वारा ज्ञानन प्राप्त होता हैं उनको ज्ञाननेन्द्रियाँ और जिनके द्वारा कर्म किए जाते हैं उनको कर्मेन्द्रियाँ कहा जाता है । ज्ञाननेन्द्रियाँ भी पाँच प्रकारकी होती हैं और कर्मेन्द्रियाँ भी पाँच प्रकारकी होती हैं । इस प्रकार बाहरकी इन्द्रियाँ कुल दस प्रकारकी होती हैं ।
जिनके द्वारा ज्ञानन प्राप्त होता है वे पाँच ज्ञाननेन्द्रियाँ इस प्रकार हैं,
१. श्रोत्र(कान)के द्वारा श्रवण किया जाता है अर्थात् शब्दका ज्ञानन होता है ।
२. चक्षु(नेत्र)के द्वारा देखा जाता है अर्थात् रूप रंगका ज्ञानन होता है ।
३. घ्राण(नासिका)के द्वारा सूँघा जाता है अर्थात् गन्धका ज्ञानन होता है ।
४. त्वचा(चमड.ी)के द्वारा स्पर्श किया जाता है अर्थात् शीत, उष्ण, कठोर कोमल आदिका ज्ञानन होता है ।
५. रसना(जीभ)के द्वारा रसका आस्वादन किया जाता है अर्थात् स्वादका ज्ञानन प्राप्त होता है ।
इस प्रकार इन ज्ञाननेन्द्रियोंके द्वारा बाह्य जगतका ज्ञानन प्राप्त होता है ।
जिनके द्वारा कर्म किए जाते हैं उन पाँच कर्मन्द्रियोंमें
१. वाक्(वाणी)के द्वारा बोला जाता है अर्थात् शाब्दिक अभिव्यक्ति होती है,
२. पाणि(हाथ)के द्वारा विभिन्न प्रकारके कार्य किए जाते हैं,
३. पाद(चरण)के द्वारा चलनेका कार्य होता हैं,
४. पायु(गुदा)के द्वारा मलत्याग होता है और
५. उपस्थ(जननेन्द्रिय)के द्वारा मूत्रत्याग किया जाता है ।
उपर्युक्त दस इन्द्रियाँ बाह्यकरण अर्थात् बाह्य साधन हैं । इनके अतिरिक्त अन्दरकी इन्द्रियाँ अन्तःकरण अर्थात् अन्तरके साधन हैं । वे चार प्रकारके हैं, मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार । ये आन्तरिक साधन बाह्य साधनोंसे सूक्ष्म होते हैं । इन चारोंको एक ही शब्दमें सत्त्व कहा है । एक ही सत्त्वकी भी चार प्रकारकी भिन्न भिन्न कार्यशक्तिके कारण इसके भिन्न-भिन्न चार नाम पड.े हैं । इनमें मनन करनेकी शक्तिके कारण मन, निश्चय करनेकी शक्तिके कारण बुद्धि, चिन्तन करनेकी शक्तिके कारण चित्त एवं अभिमान करनेकी शक्तिके कारण अहंकार इस प्रकार नामाभिधान हुआ है । कुछ शास्त्रोंमें मन और बुद्धिमें क्रमशः चित्त और अहंकारका समावेश होना बतया गया है । आन्तरिक साधन होनेके कारण इनको अन्तःकरण एवं सूक्ष्म और प्रबल शक्तिके कारण सत्त्व कहा गया है ।
शरीरमें बाहरसे दिखनेवाली एवं अन्दर होनेके कारण न दिखनेवाली मात्र अनुभव किए जानेवाली ये बाह्य एवं अन्तरकी इन्द्रियाँ सभी करण अर्थात् साधन हैं। इन सभीको साधनके रूपमें जाननेके पश्चात् हमें यह जिज्ञानसा होनी चाहिए कि वास्तवमेंये साधन किसके हैं, इन साधनोंका उपयोग कौन करता है ? यदि हम यह जानना चाहेंगे तो हमारी खोज बढ.ेगी और हम मनन, चिन्तन करने लगेंगे । तब हमें ज्ञानन होंगा कि ये सभी साधन आत्माके लिए हैं । हम स्वयं आत्मा हैं । इसलिए ये सभी साधन हमारे लिए हैं । परमात्माने हमें शरीर प्रदान किया तो इसे इन सभी साधनोंसे सुसज्जित कर प्रदान किया है । वास्तवमें यह शरीर ही एक साधन है । विभिन्न प्रकारके अंग प्रत्यंगोंसे युक्त इस स्थूल शरीरको उपर्युक्त सूक्ष्म साधनोंके द्वारा सुसज्जित किया गया है ।
इतना जाननेके पश्चात् एक और जिज्ञानसा प्रकट होनी चाहिए । वह इस प्रकार है, परमात्माने हमें ऐसा साधनसम्पन्न शरीर क्यों प्रदान किया है ? यह जिज्ञानसा उत्पन्न होते ही हम उसकी खोज करना आरम्भ करेंगे । यही खोज हमें स्वयंकी पहचान करवायेगी । तत्पश्चात् परमात्माकी पहचान होगी । यह मनुष्य शरीर परमात्माको प्राप्त करनेके लिए दिया गया साधन है । इतना जानने पर हमें यह भी विचार करना चाहिए कि जिसके लिए यह शरीर प्राप्त हुआ हैं, क्या वह कार्य हम कर रहे ? यदि कर रहे हैं तो ठीक है, इस कार्यको और आगे बढायें । यदि नहीं कर रहे हैं तो हमें यह कार्य कर लेना चाहिए अन्यथा हम स्वयंको भी धोखा दे रहे हैं और परमात्माको भी धोखा दे रहे हैं ।
इस प्रकार विचार करेंगे तो हमें यह ज्ञानत होगा कि ये साधन अति महत्त्वपूर्ण हैं और इनका सदुपयोग होना चाहिए । इनका महत्त्व जानने पर हमें इनकी कार्य प्रणालीका भी ज्ञानन होना चाहिए तभी हम इनका सदुपयोग कर पायेंगे ।
अब हम उपर्युक्त बाह्य एवं आन्तरिक साधनोंकी कार्यप्रणाली पर विचार करते हैं । यदि हम आँखसे देखते हैं तो हमें यह भी ज्ञानन होना चाहिए कि आँखके साथ मनका सम्पर्क है इसीलिए दिखाई देता है । अन्यथा मन कहीं और स्थान पर चला गया हो तो आँख खुली होने पर भी दिखाई नहीं देगा । इसी प्रकार मन कहीं और हो तो हम सुन भी नहीं पाते हैं । थोड.ा बहुत सुनाई दिया तो भी न सुने बराबर हो जाता है । इससे यह ज्ञानत होता है कि मनके सम्पर्क बिना मात्र आँखसे दिखाई नहीं देता है । देखनेके लिए आँख और मनका सम्पर्क होना आवश्यक है । इस प्रकार अन्तरकी इन्द्रियाँ और बाहरकी इन्द्रियाँ दोनोंके सम्पर्कसे ही ज्ञाननेन्द्रियोंसे ज्ञानन प्राप्त होता है और कर्मेन्द्रियोंसे काम होता है । इसीलिए कहा है, 'मन के हारे हारिए ।' मन शिथिल हो गया तो शरीर भी शिथिल हो जाएगा । यदि मन शिथिल न हो तो शिथिल बना हुआ शरीर भी सक्रिय हो जाएगा है । अन्दरकी इन्द्रियोंके कारण ही बाहरकी इन्द्रियाँ काम करती हैं अन्यथा वे निष्क्रिय हो जाती हैं । मन्दबुद्धिवाले व्यक्तियोंकी बाह्य इन्द्रियाँ भी निष्क्रिय रहती हैं । यदि अन्दरकी इन्द्रियाँ सक्रिय एवं सबल हैं तो बाहरकी इन्द्रियाँ क्षतिग्रस्त होनेपर भी व्यक्ति अच्छा कार्य कर सकते हैं । जैसे नेत्रहीन अथवा वाणीहीन व्यक्ति भी बुद्धिमान होते हैं और अनेक कार्य कर सकते हैं । बाहरकी इन्द्रियोंसे अन्दरकी इन्द्रियाँ सूक्ष्म एवं शक्तिशाली होती हैं । इसलिए उनका महत्त्व अधिक होता है । इस प्रकार दोनों प्रकारकी इन्द्रियोंका महत्त्व और भूमिका लोक व्यवहारमें यत्र तत्र दिखाई देनेसे हमें इनके कार्य और क्षमताकी बात शीघ्र ही समझमें आ जाती है । इसके साथ-साथ एक और बात समझना अति आवश्यक है, वह है आत्मा । मन, बुद्धि आदि अन्दरकी इन्द्रियाँ भी आत्मासे प्राप्त शक्तिके आधार पर ही कार्य कर सकती हैं, अन्यथा आत्माके चले जाने पर सर्वांग सम्पन्न शरीर भी व्यर्थ(नकामा) बन जाता है अर्थात् शरीरके बाह्य अंग उपांगोंके ठीक दिखने पर भी वह शरीर न रहकर मात्र शव बन जाता है । इससे यह समझना चाहिए कि आत्माकी उपस्थितिमें ही इन्द्रियाँ कार्य करती हैं । आत्मासे ही उनको शक्ति प्राप्त होती है । वह शक्ति आत्मासे सर्वप्रथम अन्दरकी इन्द्रियोंको प्राप्त होती है तद्नन्तर उनसे बाहरकी इन्द्रियोंको प्राप्त होती है । इस प्रकार आत्माके कारण ही यह पाञ्चभौतिक शरीर सक्रिय रहता है । इससे यह समझना चाहिए कि यह शरीर आत्माके द्वारा ही चलता है और यह आत्माका ही साधन है । इससे यह भी ज्ञानत होता है कि आत्माके कारण ही देखा जाता है, सुना जाता है और बोला जाता है अर्थात् सभी इन्द्रियों सहित यह स्थूल शरीर पूर्णरूपसे आत्मा पर ही निर्भर है । इसीलिए इस ओलखके आरम्भमें ही कहा गया है कि आत्माकी ही दृष्टि होती है ।
यद्यपि आत्माकी ही दृष्टि होती है और सभी प्राणी आत्माके कारण ही देखते हैं तथापि यहाँ पर आत्मदृष्टि कहनेका तात्पर्य कुछ और है अब हम उसकी चर्चा करते हैं ।
आत्माकी शक्तिके कारण ही संसारके दृश्य आँखोंके द्वारा देखे जाते हैं । तथापि इस दृष्टिको आत्मदृष्टि नहीं कहा जाता है । आत्माकी शक्ति अन्दरकी इन्द्रियोंसे होकर बाहरकी इन्द्रियों तक पहुँचती है जिसके कारण बाह्य जगतके दृश्य दिखाई देते हैं, बाह्य जगतके शब्द सुनाई देते हैं, बाह्य जगतकी गन्ध प्राप्त होती है । इस प्रकार सभी ज्ञाननेन्द्रियोंसे बाह्य जगतका ही ज्ञानन प्राप्त होता है । यह बाह्य दृष्टि कहलाती है । जब बाहरकी इन्द्रियों तक पहुँची हुई आत्माकी शक्ति उन इन्द्रियोंसे होकर पुनः अन्दरकी इन्द्रियोंतक लौट जाती है तब बाह्य जगतका भी परोक्ष ज्ञानन प्राप्त होता है । वह ज्ञानन बाहरकी इन्द्रियोंसे प्राप्त ज्ञाननसे अधिक होता है ऐसी स्थितिमें जिन दृश्योंको आँख नहीं देख रही होती है और नहीं देख सकती है वे भी दिखाई देने लगेंगे । इसे अन्दरकी आँखका खुलना कहा जाता है । लोक व्यवहारमें इसको छठ्ठी इन्द्रियसे प्राप्त ज्ञानन भी कहते हैं । यह दृष्टि खुलने पर भौतिक जगतके सूक्ष्म रहस्य भी स्पष्ट होंगे और वह व्यक्ति एक ही स्थान पर बैठा बैठा पूरे जगतके दृश्य देखने लगेगा । अनेक महापुरुषोंने इसी दृष्टिसे ग्रह नक्षत्रोंकी गति मापी है और उनकी स्थिति समझाई है । इस प्रकार उन्होंने पूरे ब्रह्माण्डके रहस्योंको सम्झाया है । बाह्य इन्द्रियोंसे लौटी हुई यह आत्म शक्ति जैसे जैसे अन्तःकरणमें अधिकरूपमें व्याप्त होती है अर्थात् मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार इन चारोंको जितना अधिक व्याप्त करती है उसीके अनुरूप महापुरुषोंको ब्रह्माण्डके रहस्य स्पष्ट होते हैं । इसीलिए कुछ महापुरुषोंको अधिक रहस्य स्पष्ट हुए हैं तो कुछको न्यून । इस दृष्टिको शास्त्रोंमें अन्तर्दृष्टि भी कहा है ।
अब इससे और अधिक विशेष महत्त्वकी बात करते हैं । इस प्रकार अन्तःकरण तक लौटी हुई वह शक्ति इससे और आगे बढ. कर जब आत्मा तक पहुँच जाएगी तब आत्म शक्तिकी पूरी सरकीट तैयार हो जाएगी । ऐसी स्थिति होने पर आत्माका भी ज्ञानन होगा और अन्य आत्माओंका भी ज्ञानन होगा, साथमें परमात्माका भी ज्ञानन होगा और इस ब्रह्माण्डसे परे अखण्ड भूमिकाके दृश्य भी भासित होने लगेंगे । इसीको आत्मदृष्टि कहा गया है । जिनकी आत्मदृष्टि खुली हुई थी उन्होंने परमात्माके भी दर्शन किए । सृष्टिका सम्पूर्ण रहस्य उन्हें ज्ञानत हुआ । ऐसी आत्माएँ नश्वर संसारमें रहती हुई भी अखण्डको देख सकती हैं और उसका वर्णन कर सकती हैं । इस सृष्टिमें कुछ आत्माओंकी ही आत्मदृष्टि खुली है । उन्होंने ही अखण्डकी बात बतायी है । देवी-देवतायें अथवा अवतारके रूपमें संसारमें आई हुई परमात्माकी शक्तिके दर्शन तो अन्तर्दृष्टि खुलनेवाली आत्मायें भी कर पाती हैं किन्तु वे परमात्माके अविनाशी स्वरूप और अखण्ड भूमिकाके दर्शन नहीं कर पाती हैं ।
महामति श्री प्राणनाथजीने इससे और आगेकी बात कही है । अब उसे समझनेका प्रयत्न करते हैं । अखण्ड भूमिकाका विस्तार बहुत बड.ा है । अखण्ड स्थानोंसे आई हुई आत्माओंमें भी जो आत्माएँ अक्षर धाम एवं परमधामसे आई हुई हैं वे शरीरधारी होने पर भी शरीरमें दृष्टाके रूपमें रहती हैं । ऐसी आत्माओंके मूल अक्षर धाम एवं परमधाममें हैं । अक्षरधामसे आई हुई आत्माओंको ईश्वरीसृष्टि और परम धामसे आई हुई आत्माओंको ब्रह्मसृष्टि कहा गया है । महामतिने ब्रह्मसृष्टि अर्थात् ब्रह्मात्माओंका विस्तृत वर्णन किया है । उसके आधार पर ईश्वरी सृष्टिकी भी स्थिति समझनी होगी । यहाँ पर ब्रह्मात्माओंकी ही चर्चा करते हैं ।
ब्रह्मात्माओंका मूल परमधाममें है । उनको पर आत्मा कहा गया है । मनकी वृत्तिकी भाँति पर आत्माकी वृत्ति ही नश्वर जगतमें आती है । उसीको महामतिने सुरता कहा है । ऐसी सुरतायें मात्र दृष्टा होती हैं । वे जगतके उत्तम जीवोंके साथ उनके द्वारा धारण किए हुए शरीरमें एक साथ रहती हैं । ऐसी आत्माओंमें जिनकी आत्मदृष्टि खुल जाती है उनकी सुरता भी संसारसे लौट कर अपने मूल पर आत्माके साथ जुड. जाती है । इसको महामतिने आत्मदृष्टिका परआत्माके साथ जुड.ना कहा है । जब आत्मदृष्टि परआत्माके साथ जुड. जाती है तब उस आत्माको पूर्णब्रह्म परमात्मा अक्षरातीत श्री कृष्ण श्री राजजीके दर्शन होते हैं, परमधामके दृश्य दिखाई देते हैं । इतना ही नहीं वे परमधामकी विभिन्न लीलाओंके भी दर्शन करती हैं । ऐसी आत्माएँ ही पूर्ण जागृत कहलाती हैं । इनको संसारसे लेकर परमधाम पर्यन्तके दृश्य दिखाई देते हैं । वे संसारमें रहती हुई भी संसारसे परे होती हैं । उनके लिए महामतिने कहा, सो रहत भवसागर पार । इत हीं बैठे घर जागे धाम ।। आदि आदि ।
महामतिने आत्मदृष्टिके खुलनेके पश्चात् भी उसके अपने मूल पर आत्माके साथ जुड.नेको विशेष महत्त्वपूर्ण कहा है । इस रहस्यको भाग्यशाली आत्मायें ही समझ पाती हैं । यथा,
जब आतम दृष्ट जुड.ी पर आतम, तब भयो आतम निवेद ।
या विध लोक लखे नहीं कोई, कोई भागवन्ती जाने या भेद ।।
सुन्दरसाथजी ! हमें इस रहस्य पर विचार करना चाहिए और इसे समझनेका प्रयत्न करना चाहिए । बाह्य दृष्टि, अन्तर्दृष्टि और आत्मादृष्टिमें इतना बड.ा अन्तर है । जब आत्मदृष्टि पर आत्माके साथ जुड. जाती है तभी हमें अपने धनी और धामके दर्शन होंगे ।
यह मानव तन मात्र साधन है किन्तु यह अति महान साधन है । इसी साधनका सदुपयोग कर हम अपनी आत्मदृष्टिको खोल सकते हैं और उसे पर आत्माके साथ जोड. सकते हैं ।
अब आरम्भसे विचार करें । क्या हमने इन गुण अंग इन्द्रियों सहित इस शरीरको साधन समझा ? सर्वप्रथम हम इसे साधनके रूपमें पहचानें । तब हमें ज्ञानत होगा कि यह साधन हमारे लिए है । अब हम इस साधनका सदुपयोग करें । हमारी(आत्माकी) शक्ति इस शरीरकी इन्द्रियोंके द्वारा विषयोपभोगके लिए नहीं है अपितु स्वयंकी पहचानके लिए है । हमने इस साधनरूप शरीरको ही नहीं पहचाना तो हम स्वयंको कैसे पहचानेंगे ? इस साधनका उपयोग यदि हमने अपनी पहचानके लिए किया तो हमने इसका सदुपयोग किया अन्यथा हमने इसका दुरुपयोग माना जाएगा । इसका दुरुपयोग ही आत्महत्या है । क्या आप आत्महत्या करना चाहेंगे ? येन केन प्रकोरण शरीरका नाश करना यथार्थमें आत्महत्या नहीं है वह तो मृत्यु है । वास्तवमें आत्माकी पहचान न कर पाना ही आत्महत्या है ।
हम विचार करें । हमने शरीरके लिए क्या क्या किया है और आत्माके लिए क्या किया है । केवल हम शरीरको ही खिलाते पिलाते रहे और स्वयंका ध्यान ही नहीं दे सके तो हम उस ड्राइवरके जैसे हैं जो गाड.ीमें तेल डालता है और स्वयं भूखा रहता है । उसकी गाड.ी कब तक चलती रहेगी । उसने स्वयं आहार नहीं लिया तो वह गाड.ी भी नहीं चला पाएगा । गाड.ी अकेले नहीं चेलगी । हम भी ऐसा ही कर रहे हैं । शरीरको ही मैं स्वयं मानकर उसीको ध्यान देते आ रहे हैं । यह हमारी भ्रान्ति है । हम स्वयं शरीर नहीं हैं अपितु आत्मा हैं । पहले हम स्वयंको आत्माके रूपमें पहचानें । इसीलिए साधकोंको कहा गया है कि वे सर्वप्रथम स्वयंको पहचानें । यथा, पेहेले आप पेहेचानो रे साधो, पेहेले आप पेहेचानो ।
स्वयंको पहचान कर हम यह देखें कि हमने स्वयंके लिए कुछ किया है ? स्वयंको आहार दिया है ? या मात्र शरीरको ही खिलाया पिलाया है ? हमने शरीरको तो बहुत खिलाया किन्तु स्वयंको कुछ भी नहीं खिलाया । हमें यह भी ज्ञानत नहीं है कि आत्माका आहार क्या है ? इसलिए आत्माके आहारको जानें । इसके लिए श्री देवचन्द्रजी महाराजकी जीवनी पढ.े । उन्होंने किसको आत्माका आहार माना था । श्री तारतम सागर ग्रन्थ हमारे लिए आत्माका आहार है । इससे श्री राजजीका प्रेमरूपी रस प्राप्त होगा । तारतम ज्ञानन और प्रेम लक्षणाभक्ति आत्माको आहार दिलानेके माध्यम हैं । इन माध्यमोंका सही उपयोग करते जायेंगे तो आत्मदृष्टि खुलेगी और पर आत्माके साथ जुड. जायेगी । तब हमें श्री राजजीके दर्शन होंगे, उनकी वाणी सुनाई देगी, उनका आदेश समझमें आएगा और उनका प्रेम प्राप्त कर हम तृप्त होंगे । साथमें यह नश्वर शरीर भी रोमाञ्चित होगा ।