Mahamati emphasis on Practice and Silence!

By Ranjanaoli


कहे हुकम आगे रेहेनीय के, केहेनी कछुए नाहें।
जोस इसक हक मिलावहीं, सो फैल हाल के माहें।।१६


धामधनीके आदेशका तात्पर्य (कथन) यही है कि आचरणके समक्ष मात्र कथनका कोई महत्त्व नहीं है. सद् आचरण एवं शुद्ध मनोभाव होने पर ही परमात्मा उसके अन्तर्गत अपना आवेश एवं प्रेमको सम्मिलित कर देते हैं.


दुनियां केहेनी केहेत है, सो डूबत मैं सागर।
मैं लेहेरें मेर समान में, कोई निकस न पावे बका घर।।१7


संसारके जीव मात्र कथन ही करते हैं, इसीलिए अहङ्कारके कारण वे भवसागरमें डूब जाते हैं. पर्वतके समान बने हुए अहंभावके तरङ्गोंसे बाहर निकल कर कोई भी व्यक्ति अखण्ड घरको प्राप्त नहीं कर सकता.


ए खेल मोहोरे कथ कथ गए, सो जले खुदी बेखबर।
आप लेहेरें माहें अपनी, गोते खात फेर फेर।।१८


इस खेलके खिलौनेके समान संसारके जीव मात्र कथन ही करते हुए चले गए. बेसुधिके कारण वे अपने अहंभावमें ही जलते रह गए. वस्तुतः अपने अहंभावके तरङ्गोंमें ही वे वारंवार गोते खाते रहे हैं.


एही इनों का किबला, छोडे नाहीं ख्याल।
मैं मैं करत मरत नहीं, इनके एही फैल हाल।।१९


यह अहंभाव ही उनका आराध्य है जिसे वे त्याग नहीं सकते. ऐसे लोग सदैव 'मैं' 'मैं' करते रहते हैं तथापि उनका अहंभाव कभी कम नहीं होता. इनके आचरण (कर्म) तथा मनोभाव ही ऐसे हैं.


अब कैसी मैं बीच खेल के, जो खेलत कबूतर।
ए जो नाबूद कछुए नहीं, तो मैं कहत क्यों कर।।२०


जादूगरके खेलके कबूतरोंके समान अस्तित्वहीन सांसारिक जीवोंके अहंभावका महत्त्व ही क्या है ? जिनका स्वयं ही अस्तित्व नहीं है वे अपना अहंभाव कैसे व्यक्त कर सकते हैं ?


ए खेल किया तुम वास्ते, जो देखत बैठे वतन।
सो देख के उडावसी, जिन विध झूठ सुपन।।२१


हे ब्रह्मात्माओ ! वस्तुतः इस नश्वर खेलकी रचना तुम्हारे लिए ही की गई है और तुम स्वयं परमधाममें ही बैठकर इसे देख रही हो. इसे देखकर जब तुम जागृत हो जाओगी तब यह नश्वर खेल उसी प्रकार उड. जाएगा जैसे नींदसे जागृत होने पर स्वप्न उड. जाता है.


जो रूहें होए अरस की, सो तो तले हुकम।
जानत त्यों खेलावत, ऊपर बैठ खसम।।२२


परमधामकी ब्रह्मात्माएँ सदैव धामधनीके आदेशके अधीन रहती हैं क्योंकि परमधाममें बैठे हुए धामधनी जैसा चाहते हैं वैसे ही इन्हें खेला रहे हैं.


इन में भी मैं है नहीं, जो ए समझें मूल इलम।
फैल हाल इसक लेवहीं, तब हक की मैं आतम।।२३


यदि ये ब्रह्मात्माएँ मूल (तारतम) ज्ञाानका रहस्य समझ लें तो वस्तुतः इनमें अहंभाव (मैं ) का अस्तित्व ही नहीं रहेगा अर्थात् ये स्वयंको धामधनीसे भिन्न नहीं समझेंगी. वस्तुतः सत् आचरण (कर्म), शुद्ध मनोभाव तथा प्रेेमको ग्रहण करने पर उनमें 'मैं धामधनीकी ही अङ्गना हूँ' ऐसा भाव बना रहता है.


तब गुनाह कछू ना लगे, जो कीजे ऐसी चाल।
सो सुकन पेहेले कहे, जो कोई बदले हाल।।२४


उपर्युक्त आचरणके होते हुए ब्रह्मात्माओंको किसी भी प्रकारका दोष नहीं लगेगा. ब्रह्मात्माएँ अपनी मनोदशा (मनस्थिति) बदल लें इस हेतु इस प्रकारके वचन पहले ही कहे गए हैं.


इन विध मैं मरत है, बैठे तले कदम।
जोस इसक आवे हाल में, लेय के हक इलम।।२५


'हम धामधनीके चरणोंमें ही बैठी हैं तथा उनकी ही अङ्गनाएँ हैं' ऐसा समझने पर भौतिक अहंभाव (देहाध्यास) मिट जाता है. इस प्रकार तारतम ज्ञाानका रहस्य ग्रहण करने पर अपनी मनस्थिति धनीके जोश तथा प्रेमसे परिपूर्ण होती है.
श्री खिलवत


और मोमिन बोल ना बोलहीं, एक म्याराज बिन।
जिनपें इलम हक का, लुदंनी रोसन।।४२


ब्रह्मात्माएँ परब्रह्म परमात्मा एवं परमधामके अतिरिक्त अन्य कोई बात नहीं करतीं हैं. उनके हृदयमें परब्रह्म परमात्माका दिव्य तारतम ज्ञाान प्रकाशित हुआ है.



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