खेलमें खेल

परम पूज्य जगद्गरु आचार्य श्री १०८ कृष्णमणिजी महाराज

 

यह सृष्टि मायाजन्य खेल अथवा नाटक कहताली है । इसको खेल कहनेका तत्पर्य यह है कि अक्षब्रह्म इसे बनाते हैं, थोडे समयके लिए टिकाते हैं और अन्तमें मिटा देते हैं, इसमें उनका ममत्व तथा परत्व नहीं रहता है । यह उनकी मौज है कि वे इसे बनाते और मिटाते रहते हैं । इसलिए जगतकी सृष्टि, स्थिति और लयके परम कारण अक्षरब्रह्म कहे जाते हैं । यह उनका ही खेल है । इस खेलको बनाना और मिटाना अक्षरब्रह्मका स्वभाव है । इसे उनकी लीलाका एक अंश भी कह सकते हैं । महामति श्री प्राणनाथजी कहते हैं,


श्रीभगवानजी खेलत बाल चरित्र, आप अपनी इच्छासों प्रकृत ।


अक्षरब्रह्मकी कल्पनामात्रसे करोड ब्रह्माण्ड अस्तित्वमें आते हैं । वे उनको क्षणमात्र टिकाकर पलभरमें लय भी कर देते हैं । यथा, कोटि ब्रह्माण्ड नजरोंमें आवे, क्षणमें देखके पलमें मिटावे ।


अक्षरब्रह्मकी लीला बाललीला कहलाती है । इसलिए कि वे बालकोंकी भाँति नश्वर खेलको बनाते हैं और देखते देखते मिटा भी देते हैं । वे स्वयं तो किशोर स्वरूप हैं किन्तु लीला बालकोंकी भाँति करते हैं । इसलिए उनका बालस्वभाव कहा है । उनकी इच्छासे ही मोह उत्पन्न होता है और उनकी सुरता मोहमें प्रवेश करती है जिससे पाँच तत्त्व प्रकट होते हैं । उनके शुद्धरूपसे सूक्ष्म जगत एवं मिश्रित रूपसे स्थूल जगतका निर्माण होता है । जगतका कारण अक्षरब्रह्मकी इच्छाशक्ति है । पाँच तत्त्वोंका शुद्ध स्वरूप पञ्चतन्मात्रा एवं मिश्रित स्वरूप दृश्यमान पाँच तत्त्व(आकाश, वायु, तेज, जल एवं पृथ्वी) है । पाँच तत्त्वोंके मिश्रणको पञ्चीकरण कहते हैं । पिण्ड(शरीर) एवं ब्रह्माण्डकी रचना पञ्चीकृत पाँचतत्त्वोंके द्वारा होती है । यह उनका स्थूल स्वरूप है ।


ब्रह्माण्डके अधिपति भगवान नारायण कहलाते हैं । वे अक्षरब्रह्मके ही स्वप्नके स्वरूप हैं । यह ब्रह्माण्ड भगवान नारायणका स्थूल रूप है । वे स्वयं अव्यक्त हैं और ब्रह्मा, विष्णु एवं महेशके रूपमें व्यक्त होकर ब्रह्माण्डके अन्तर्गत चौदह लोकोंमें प्राणियोंकी सृष्टि, स्थिति एवं लय करते हैं । तंत्रीस कोटि देवी-देवतायें उक्त तीनों देवताओंके सहयोगी माने जाते हैं । इस प्रकार यह संसार अक्षरब्रह्मके खेलका विस्तार है ।


इस खेलमें दो प्रकारके जीव हैं । उनमेंसे एक प्रकारके जीव खेलके पात्र हैं और दूसरे प्रकारके जीव इसके द्रष्टा हैं । खेलके पात्र जीव चेतन होते हुए भी नश्वर जगतके ही कहलाते हैं । वे मूलतः अव्यक्त अक्षरके अन्तर्गत स्थित प्रणव ब्रह्मके द्वारा इस नश्वर जगतमें आते हैं किन्तु जगतमें आते ही नश्वर शरीर धारणकर माया मोहवश उसके द्वारा किए गए कर्मोंके बन्धनमें उलझकर कर्मफल भोगने लगते हैं । यह जन्म मृत्युका चक्र उनके लिए है । दूसरे जीव द्रष्टा हैं । उनका मूल नश्वर ब्रह्माण्डसे परे अविनाशी धाम है । उनमें भी एक अक्षरधामसे आई हुई ईश्वरीसृष्टि एवं दूसरी ब्रह्मधाम परमधामसे आई हुई ब्रह्मसृष्टि हैं । कहा भी है,


जीवसृष्टि बैकुंठ लों सृष्टि ईश्वरी अक्षर ।
ब्रह्मसृष्टि अक्षरातीत लों, कहे शास्त्र यों कर ।।


उक्त तीनों प्रकारकी सृष्टिमें जीवसृष्टि कर्मफल भोगते हुए कर्मके बन्धनोंमें बंधकर जन्ममृत्युके चक्रमें फिरती रहती हैं । ईश्वरी सृष्टि एवं ब्रह्मसृष्टि उत्तम प्रकारके जीवों द्वारा धारण किए हुए शरीरमें प्रवेश कर नश्वर जगतका खेल देखती हैं । कहा है,

यामें जीव दोय भाँतके, एक खेल दूजे देखन हार ।


इस प्रकार तीन प्रकारकी सृष्टि होते हुए भी कर्मफलके भोक्ता एवं द्रष्टाके रूपमें दो प्रकारकी मानी गई है । श्वेताश्वतर उपनिषदमें भी यह बात स्पष्ट की है । यथा,


द्वा सुपर्णा सयुजौ सखायौ, समाने वृक्षे परिषस्वजाते ।
तयोरेकं पिप्पलं स्वादुमत्तिः अनश्ननन्यो अभिचाकषीति ।।


अर्थात् एक वृक्षमें दो पक्षी सखाभावसे रहते हैं । उनमेंसे एक उस वृक्षके फलका आस्वादन करता है तो दूसरा मात्र देखता रहता है । यहाँ पर शरीरको वृक्षके रूपमें और जीवको पक्षीके रूपमें प्रस्तुत किया है ।


नश्वर जगतके जीव नरतन धारण करने पर भी नश्वर जगतके खेलको खेल न मानकर इसे अपना मान लेते हैं और इसमें ममत्व और परत्वकी भावना रखते हैं इसलिए अक्षरब्रह्मके खेलमें होते हुए भी वे सत्त्व, रज एवं तम गुणोंके अधीन होकर शुभ-अशुभ कर्म कर खेलमें भी खेल उत्पन्न करते रहते हैं । उन्हें नश्वर जगतसे परेका ज्ञाान नहीं होता है । इसलिए वे झूठ, कपटका आश्रय लेकर नश्वर जगतकी सम्पत्ति एवं प्रतिष्ठा प्राप्त करना चाहते हैं । उनको भौतिक सम्पत्ति एवं प्रतिष्ठामें ही सुख दिखाई देता हैं । ब्रह्मात्माएँ एवं ईश्वरीसृष्टि भी इन जीवोंके साथ नरतन धारण कर अपने मूलको भूई गई हैं । और इन्हीं भौतिक सम्पत्ति एवं प्रतिष्ठाके द्वारा सुख प्राप्त करना चाहती हैं ।


यद्यपि ब्रह्मात्माएँ परमधाममें अपने धनी पूर्णब्रह्म परमात्मा अनादि अक्षरातीत श्रीकृष्ण श्रीराजजीके चरणोंमें बैठकर नश्वर जगतका यह खेल देख रही हैं एवं धामधनी श्रीराजजी स्वयं उन्हें यह खेल दिखा रहे हैं तथापि मायाजन्य जगतमें मायाका प्रभाव इतना अधिक है कि ब्रह्मधाम की आत्माएँ भी नश्वर जगतका खेल देखती हुई माया मोहसे प्रभावित होकर स्वयंका अस्तित्व भूल जाती हैं । उनको जगानेके लिए श्रीश्यामाजी तारतम ज्ञान लेकर सद्गुरुके रूपमें प्रकट होती हैं और इस रहस्यको स्पष्ट करती हैं । कहा भी है,


देखनको हम आए री दुनियां, हम ही कारण कियो ए संच ।
पार हमारो न्यारा नहीं, हम पार ही में बैठे देखे प्रपंच ।।


अर्थात् हे ब्रह्मात्माओं ! हम सभी नश्वर जगतका यह खेल देखनेके लिए सुरताके रूपमें यहाँ पर आई हंै । हमें दिखानेके लिए ही धामधनी श्रीराजजीने अक्षर ब्रह्मके द्वारा इस विशिष्ट खेलकी रचना करवायी है । किन्तु यह खेल देखते ही हम स्वयंको भी भूल गयीं और अपने धनीको भी भूल गइंर् । हमें यह लगने लगा कि हम तो आदि अनादि कालसे नश्वर जगतमें हैं और हमारे धामधनी हमसे दूर अपने धाम परमधाममें हैं । जागृत होकर हमें समझना है कि वस्तुतः धामधनी हमसे दूर नहीं हैं, हम तो उनके चरणोंमे बैठ कर ही मायाका यह प्रपंच देख रहे हैं ।


सद्गुरुने हमें तारतम ज्ञाानके द्वारा यह समझाया कि हे ब्रह्मात्माओ ! इस खेलकी रचना तो तुम्हारे लिए ही करवायी गई है । इसे देखकर तुम्हें परमधाममें जागृत होना है । जब तुम जागृत हो जाओगी तब तुम खेलकी बातोंको याद कर परस्पर विनोद करोगी । यथा,


ए खेल किया तुम खातर, तुम देखन आइयां जेह ।
खेल देखके चलसी, घर बातां करसी एह ।।
(कलश हि. १८/३)


हे ब्रह्मात्माओ ! तुम इस खेलको देखनेके लिए आई हो इसलिए इसे भली भाँति देखो । तुमने स्वयं ही खेल देखनेकी चाहना की और श्रीराजजीसे इसकी मांग की । धामधनी यह खेल दिखा कर तुम्हारी मांगको ही पूरा कर रहे हैं । यथा,


अब निरखो नीके कर, ए जो देखन आइयां तुम ।
माग्य खेल हिरसका, सो देखलावें खसम ।।
(कलश हि. १३/१)


यह खेल इतना विचित्र है कि खेलने वाले और देखनेवाले दोनों ही इसमें रचे-पचे हुए सब कुछ भूल जाते हैं । यहाँके लोग किसी अपरिचित व्यक्तिके साथ सम्बन्ध बनाकर खुश होते हैं और सदा सर्वदासे परिचित धामधनीके साथके अपने शाश्वत सम्बन्धको भूल जाते हैं । यहाँ पर एक और विवाहके लिए श्रृंगार किए हुए बारातीलोग नाच रहे होते हैं तो दूसरी और किसी मृतककी अरथी उठाकर चलने वाले लोग रोते हुए जा रहे होते हैं । कभी ऐसे दोनों प्रकारके लोग आमने सामने हो जाते हैं । कहीं किसीका जन्म होकर लोग खुशियां मना रहे होते हैं तो वहीं पर दूसरी ओर किसीके मरण होनेसे रोते हुए दिखाई देते हैं,


नाहीं जासों पेहेचान कबहूं, तासों करे सनमंध ।
सगे सहोदरे मिलके, ले देवे मनके बंध ।।


सिनगार करके तुरी चढे, कोई करे छाया छत्र ।
कोई आगे नटारंभ करे, कोई बजावे बाजंत्र ।।


कोई बांध सीढी आवे सामी, करे पोक पुकार ।
विरह वेदना अंग न माय, पीटे माहें बजार ।।
(कलश हि. १३/१३, १५, १६)


यहँ पर कोई कृपण हैं तो कोई दाता कहलाते हैं, कोई ज्ञानी हैं तो कोई अज्ञानी हैं, कोई राज है तो कोई रंक है । इस प्रकार इस जगतमें अनेक विषमतायें हैं ।


महामति कहते हैं, सद्गुरु धनीने यहाँ आकर हमें समझाया कि हे ब्रह्मात्माओ ! तुम यह विचित्र खेल देखने मात्रके लिए आयी हो किन्तु यहाँ आकर मायाके जीवोंकी भाँति तुम भी मायामें ही हिलमिल गई । इनको तो यह नश्वर खेल नश्वर नहीं लगता है क्योंकि जलतरंगवत् ये सभी स्वयं भी मोह मायाकी ही सृष्टि है । वास्तवमें यह झूठी माया तुम सत्य आत्माओंको प्रभावित कर रहीं है । तुम स्वयं सत्य होते हुए भी स्वयंको न पहचान कर झूठी मायामें भूलने लगी हो । यह तो नश्वर होनेके कारण एक दिन मिटेगी ही किन्तु तुम्हें झूठा दाग लगा कर मिटेगी । इसलिए तुम जागृत हो जाओ,


तुम आइयां छल देखने, भिल गैयां माहें छल ।
छलको छल न लाग ही, ओ लेहरी ओ जल ।।


ए झूठी तुमको लग रही, तुम रहे झूठी लाग ।
ए झूठी अब उड. जायगी, दे जासी झूठा दाग ।।
(कलश हि. १२/११,१२)


स्वयंको समझदार कहलानेवाले लोगभी मायाके खेलमें भूलकर काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद एवं मत्सरके कारण हृदयमें छल, कपट रखकर मात्र दिखानेके लिए अच्छा कार्य करते हैं । इसका कारण यही हैं कि मायाके जीव मायाके जीव मायाकी ओर ही आकृष्ट होते हैं । उन्हें यह भी पता है कि वे गलत कार्य रहे हैं, दंभ एवं आडम्बर दिखा रहे है फिर भी उसीमें मस्त हैं, जानते हुए भी गहरी खाईमें पड. रहे हैं । इसलिए ब्रह्मात्माओंको सावचेत करते हुए महामति कहते है कि यह झूठा खेल मिटने वाला तो है ही किन्तु तुम सत्य आत्मा भी मायाके झूठे प्रलोभनमें आकृष्ट हो जाओगी तो यह माया तुम्हें कलंकित करेगी । झूठ तो झूठ ही है वह एक दिन मिटेगा ही किन्तु तुम्हें कलंकित करके मिटेगा । इसलिए तुम व्यर्थमें क्यों कलंकित हो रहे हो, अब जागो और अपने कर्तव्यको समझो । तुम्हें दुनियांकी सम्पत्ति एवं सत्ता मिल भी जाएगी फिर भी सन्तोष तो नहीं होगा न ।


वास्तवमें खेल तो खेल ही होता है । इसमें खेलने वाले लोग भी इसे खेल समझकर खेल दिलीसे खेलने लगोंगे तो उन्हें हार जीतकी कामना नहीं रहेगी इसलिए वे हर्ष और शोकसे ऊपर उठ जायेंगे । किन्तु देखनेवाले लोग तो कमसे कम इसे खेल समझ कर देखने लगेंगे तो उन्हें हर्ष-शोकसे रहित होकर आनन्दका अनुभव होगा । ब्रह्मात्माएँ द्रष्टा होनेसे ममत्त्व और परत्त्वका आरोप किए बिना ही माया मोहमें अलिप्त होकर उनको यह खेल देखना चाहिए । मायाके झूठे जीव ही छल कपटका साहरा लेकर झूठी सम्पत्ति और प्रतिष्ठा प्राप्त करना चाहते हैं । यदि वह सम्पत्ति या प्रतिष्ठा मिल भी जाय तो भी शरीर छूटने पर तो वह छूट ही जायेगा । इसलिए अपने धनीको छोड. कर मायाके पीछे दौड.ना नहीं चाहिए । यद्यपि शरीर रहने तक माया का भी महत्त्व रहता है, सारे लौकिक कार्य लौकिक सम्पत्तिके द्वारा ही सम्पन्न होंगे तथापि मायाके साधनोंसे हमारी तृप्ति नहीं होगी । हमारी भूख मायाके आहारसे शान्त नहीं होगी इसके लिए तो जागृत होकर धाम और धनीका आश्रय लेना ही पडेगा । आत्मामें जागृति आते ही हमें अनुभव होगा कि हम श्रीराजजीसे दूर नहीं अपितु उनके ही चरणोंमें रह कर मायाका खेल देख रहे हैं ।

 

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